तुम व्यर्थ निमग्न रहते हो
कभी चंचल होते हो कभी सरस सहज रहते हो
भावों को अपने तुम कठिन हुआ कहते हो
तुम बिन जीवन आज मेरा कोरा कागज़ सा लगता है
अब स्वप्न में तुम ही तुम तो बसते हो
मेरे जीवन की इस बगिया में एक तुम ही तो अब सजते हो
तुम साथ नही तुम पास नही
तुमसे राग नही तुमसे द्रेष नही
तुम अपनी राहो में ही जाते हो
कुछ नयी कहानी सुनाते हो
तुम एक जगह न स्थिर हो
मेरे प्राणों की लेकिन तुम परिभाषा हो
तुम ही मेरे नैनों की भाषा हो
तुम चिंतन के अभिलाषी हो
तुम विचलित सी गंगा हो
तुम आज मेरी न समझते हो
तुम व्यर्थ निमग्न रहते हो
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